गाँव-शहर (नवगीत)
—प्रदीप शुल्क
बदला-बदला-सा मौसम है
बदले-से लगते हैं सूर ।
दीदा पाडे़ शहर देखता
गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।
तिल रखने की जगह नहीं है
शहर ठसाठस भरे हुए ।
उधर गाँव में पीपल के हैं
सारे पत्ते झरे हुए ।
मेट्रो के खंभे के नीचे
रात गुजारे परमेसुर ।
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।
इधर शहर में सारा आलम
आँख खुली बस दौड़ रहा ।
वहाँ रेडियो पर स्टेशन
रामदीन है जो हो रहा ।
उनकी बात सुनी है जबसे
दिल करता है धुकुर-फुकुर ।
सुरतिया के दोनों लड़के
सूरत गए कमाने ।
गेहूँ के खेतों में लेकिन
गिल्ली लगीं घमाने ।
लँगडा़कर चलती है गैया
सड़कों ने खा डाले खुर ।
दीदा फाड़ शहर देखता
गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।
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