गाँव-शहर (नवगीत) । कक्षा ८ की कविता ।


गाँव-शहर (नवगीत) 



                                           —प्रदीप शुल्क




बदला-बदला-सा मौसम है


बदले-से लगते हैं सूर ।


दीदा पाडे़ शहर देखता


गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।



तिल रखने की जगह नहीं है


शहर ठसाठस भरे हुए ।


उधर गाँव में पीपल के हैं


सारे पत्ते झरे हुए ।



मेट्रो के खंभे के नीचे 


रात गुजारे परमेसुर ।


दीदा फाड़े शहर देखता 


गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।



इधर शहर में सारा आलम 


आँख खुली बस दौड़ रहा ।


वहाँ रेडियो पर स्टेशन 


रामदीन है जो हो रहा ।


उनकी बात सुनी है जबसे 


दिल करता है धुकुर-फुकुर ।



सुरतिया के दोनों लड़के 


सूरत गए कमाने ।


गेहूँ के खेतों में लेकिन 


गिल्ली लगीं घमाने ।



लँगडा़कर चलती है गैया 


सड़कों ने खा डाले खुर ।


दीदा फाड़ शहर देखता 


गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।


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