निसर्ग वैभव ।। सुमित्रानंदन पंत जी की कविता ।।

।। पदय संबंधी ।।

कविता : रस की अनुभूति कराने वाली, सुंदर अर्थ प्रकट करने वाली, हृदय की कोमल अनुभूतियों का साकार रूप कविता है । 

  प्रस्तुत रचना में सु प्राकृतिक वैभव, सौंदर्य, निसर्गरम्य अनुभूति-उदात्तता, आध्यात्मिकता, अद्भुत भाषा प्रभाव एवं वर्णन शैली का साक्षात्कार होता है ।

— सुमित्रानंदन पंत 

कितनी सुंदरता बिखरी प्राकृतिक जगत में, ईश्वर, 
टपक रही गिरि-शिखरों से झर, लोट रही घाटी में लिपटी धूप छाँह में निःस्वर ! 
अनिल स्पर्श से पुलकित तृण दल, बहती सीमाहीन 
श्लक्ष्ण संगीत स्रोत-सी अहरह वन-भू मर्मर ! 

फूलों की ज्वालाएँ आँखें करतीं शीतल,
मुकुल अधर मधु पीते गुजन भर मधुकर दल ! 
तितली उड़तीं, दूर, कहीं पल्लव छाया में
रुक-रुक गाती वन प्रिय कोयल ! 

**********

लेटी नीली छायाएँ कृश रवि किरणों में गुंफित, 
दुरारोह भातीं ढालें, निश्चल तरंग-सी स्तंभित ! 
स्वर्ण-भाल गिरी सर्वप्रथम करती ऊषा अभिनंदन, 
साँझ यहीं सोती छिप, निर्जन में कर संध्यावंदन !

अपलक तारापथ शशिमुख का बनता लेखा दर्पण, 
यहीं शैल कंधों पर सोया जगता गंध समीरण !

सद्यः स्फुट सौंदर्य राशि सम्मोहन भरती मन में, 
कितना विस्मयकर वैचित्र्य भरा पर्वत जीवन में । 

खग चखते फल, कुतर रहीं गिलहरियाँ कोंपल, 
वन-पशु सब लगते प्रसन्न परिचित मरकत आँगन में । 

स्वाभाविक, यदि मुझे याद आता 
ईश्वर इस क्षण में ! जड़ जग इतना सुंदर जब 
चेतन जग में क्या कारण रहता अहरह जो 
विषण्ण जीवन मन का संघर्षण ? 

मनुज प्रकृति का करना फिर नव विश्लेषण, संश्लेषण,
ईश्वर का प्रतिनिधि नर, अभिशापित हो उसका जीवन ? 
लगता, अपनी क्षुद्र अहंता ही में सीमित, केंद्रित, 
छिन्न हो गया विश्व चेतना से मानव मन निश्चित ! 

  अगर आपको ये कविता पसंद आयी हो तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर कीजिये और इससे जुड़ा आपका कोई भी सवाल हो तो कमेंट में जरूर बताएं ।

 ।। धन्यवाद ।।

Post a Comment

0 Comments