।। पदय संबंधी ।।
कविता : रस की अनुभूति कराने वाली, सुंदर अर्थ प्रकट करने वाली, हृदय की कोमल अनुभूतियों का साकार रूप कविता है ।
प्रस्तुत रचना में सु प्राकृतिक वैभव, सौंदर्य, निसर्गरम्य अनुभूति-उदात्तता, आध्यात्मिकता, अद्भुत भाषा प्रभाव एवं वर्णन शैली का साक्षात्कार होता है ।
— सुमित्रानंदन पंत
कितनी सुंदरता बिखरी प्राकृतिक जगत में, ईश्वर,
टपक रही गिरि-शिखरों से झर, लोट रही घाटी में लिपटी धूप छाँह में निःस्वर !
अनिल स्पर्श से पुलकित तृण दल, बहती सीमाहीन
श्लक्ष्ण संगीत स्रोत-सी अहरह वन-भू मर्मर !
फूलों की ज्वालाएँ आँखें करतीं शीतल,
मुकुल अधर मधु पीते गुजन भर मधुकर दल !
तितली उड़तीं, दूर, कहीं पल्लव छाया में
रुक-रुक गाती वन प्रिय कोयल !
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लेटी नीली छायाएँ कृश रवि किरणों में गुंफित,
दुरारोह भातीं ढालें, निश्चल तरंग-सी स्तंभित !
स्वर्ण-भाल गिरी सर्वप्रथम करती ऊषा अभिनंदन,
साँझ यहीं सोती छिप, निर्जन में कर संध्यावंदन !
अपलक तारापथ शशिमुख का बनता लेखा दर्पण,
यहीं शैल कंधों पर सोया जगता गंध समीरण !
सद्यः स्फुट सौंदर्य राशि सम्मोहन भरती मन में,
कितना विस्मयकर वैचित्र्य भरा पर्वत जीवन में ।
खग चखते फल, कुतर रहीं गिलहरियाँ कोंपल,
वन-पशु सब लगते प्रसन्न परिचित मरकत आँगन में ।
स्वाभाविक, यदि मुझे याद आता
ईश्वर इस क्षण में ! जड़ जग इतना सुंदर जब
चेतन जग में क्या कारण रहता अहरह जो
विषण्ण जीवन मन का संघर्षण ?
मनुज प्रकृति का करना फिर नव विश्लेषण, संश्लेषण,
ईश्वर का प्रतिनिधि नर, अभिशापित हो उसका जीवन ?
लगता, अपनी क्षुद्र अहंता ही में सीमित, केंद्रित,
छिन्न हो गया विश्व चेतना से मानव मन निश्चित !
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