।। पद्य संबंधी ।।
कुंडली : यह दोहा और रोला के मेल से बनती है । कुंडली में दोहा के अंतिम पद को रोला का पहला चरण बनाना होता है । कुंडलियों की एक विशेषता यह है कि यह जिस शब्द से शुरू होती है उसी इसका समापन भी होता है ।
यहाँ कुंडलियों के माध्यम से विविध सामाजिक गुणों को अपनाने की बात की गई है ।
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय ।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय ।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन ।
दोऊ के एक रंग, काग सब भये अपावन ।।
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के ।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के ।।
देखा सब संसार में, मतलब का व्यवहार ।
जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको यार ।।
तब लगि ताको यार, यार सँग ही सँग डोलै ।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहि, बोले ।।
कह गिरिधर कविराय, जगत का ये ही लेखा ।
करत बेगरजी प्रीति, मित्र कोई बिरला देखा ।।
झूठा मीठे वचन कहि, ऋण उधार ले जाय ।
लेत परम सुख ऊपजै, लैके दियो न जाय ।।
लैके दियो न जाय, ऊंच अरु नीच बतावै ।
ऋण उधार की रीति, मांगते मारन धावै ।।
कह गिरिधर कविराय, जानि रहै मन में रूठा ।
बहुत दिना हो जाय, कहै तेरो कागज झूठा ।।
बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताय ।
काम बिगारै आफ्नो, जग में होत हँसाय ।।
जग में होत हँसाय, चित्त में चैन न आवै ।
खान-पान-सनमान, राग-रंग मनहि न भावै ।।
कह गिरिधर कविराय, दुख कछु टरत न टारे ।
खटकत है जिय माँहि, कियो जो बिना विचारे ।।
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ ।।
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै ।
दुर्जन हँसे न कोय, चित्त में खता न पावै ।।
कह गिरिधर कविराय, यहै करु मन परतीती ।
आगे की सुधि लेइ, समझुबीती सो बीती ।।
पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़ो दाम ।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम ।।
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै ।
परस्वास्थ के काज, शीस आगे कर दीजै ।।
कह गिरिधर कविराय, बड़ेन की याही बानी ।।
चलिए चाल सुचाल, राखिए अपनो पानी ।।
शब्दसंसार
सहस = सहस्र त्विरला = निराला
दोऊ = दोनों लैके = लेकर
ताको = उसको अरु = और
लेखा = व्यवहार। टारना = टालना
बेगरजी = निस्वार्थ। परतीती = प्रतीति, विश्वास
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