किताबें ।। गुलजार जी कि नई कविता ।।

।। पद्य संबंधी ।।

  नई कविता : आधुनिक संवेदना के साथ परिवेश के संपूर्ण वैविध्य को नए शिल्प में अभिव्यक्त करने वाली काव्यधारा है । 

  प्रस्तुत कविता में गुलजार जी ने पुस्तकें पढ़ने का सुख , कंप्यूटर के कारण पुस्तकों के प्रति अरुचि , पुस्तकों और मनुष्यों के बीच बढ़ती दूरी और उससे उत्पन्न दर्द को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है ।

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से, 
बड़ी हसरत से तकती हैं । 
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं, 
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं 
अब अक्सर ..........

गुजर जाती हैं 'कंप्यूटर के पर्दो पर' 
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ..........
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है 
जो कदरें वो सुनाती थी 
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे, 
वो कदरें अब नजर आती नहीं घर में, 
जो रिश्ते वो सुनाती थीं । 

वह सारे उधड़े-उधड़े हैं, 
कोई सफा पलटता तो इक सिसकी निकलती है, 
कई लफ्जों के मानी गिर पड़े हैं 
बिना पत्तों के सूखे-टुंड लगते हैं वो सब अल्फाज, 
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते ..........

जुबां पर जो जायका आता था 
जो सफा पलटने का 
अब उँगली 'क्लिक' करने से बस 
झपकी गुजरती है 
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता
 चला जाता है परदे पर, 
किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है ..........

कभी सीने पे रख के लेट जाते थे 
कभी गोदी में लेते थे 
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर 
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी 

मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल 
और महके हुए रुक्के 
किताबें गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे 
उनका क्या होगा ? वो शायद अब नहीं होंगे !! 

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