।। पद्य सबधी ।।
प्रस्तुत कविता में कवि ने शिशिर ऋतु में पड़ने वाली अत्यधिक ठंडक से परेशान प्राणियों, साधन संपन्न एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के जीवनयापन का सजीव वर्णन किया है । कवि का कहना है कि धनवान और निर्धन दोनों भाई-भाई हैं । समाज में अमीरों को गरीब भाइयों की भलाई के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए ।
— मुकुटधर पांडेय
ता बीत गया हेमंत भ्रात, शिशिर ऋतु आई !
प्रकृति हुई ट्युतिहीन, अवनि में कुंझटिका है छाई ।
पड़ता खूब तुषार पद्मदल तालों में बिलखाते,
अन्यायी नृप के दंडों से यथा लोग दुख पाते ।
निशा काल में लोग घरों में निज-निज जा सोते हैं ,
बाहर श्वान, स्यार चिल्लाकर बार-बार रोते हैं ।
अद्र्धरात्रि को घर से कोई जो आँगन को आता,
शून्य गगन मंडल को लख यह मन में है भय पाता ।
तारे निपट मलीन चंद ने पांडुवर्ण है पाया,
मानो किसी राज्य पर है, राष्ट्रीय कष्ट कुछ आया ।
धनियों को है मौज रात-दिन हैं उनके पौ-बारे,
दीन दरिद्रों के मत्थे ही पड़े शिशिर दुख सारे ।
वे खाते हैं हलुवा-पूड़ी, दूध-मलाई ताजी,
इन्हें नहीं मिलती पर सूखी रोटी और न भाजी ।
वे सुख से रंगीन कीमती ओढ़ें शाल-दुशाले,
पर इनके कंपित बदनों पर गिरते हैं नित पाले ।
वे हैं सुख साधन से पूरित सुघर घरों के वासी,
इनके टूटे-फूटे घर में छाई सदा उदासी ।
पहले हमें उदर की चिंता थी न कदापि सताती,
माता सम थी प्रकृति हमारी पालन करती जाती ।।
हमको भाई का करना उपकार नहीं क्या होगा,
भाई पर भाई का कुछ अधिकार नहीं क्या होगा ।
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